Lekhika Ranchi

Add To collaction

मुंशी प्रेमचंद ः कर्मभूमि


भाग 5

अमर गूदड़ चौधरी के साथ महन्त आशाराम गिरि के पास पहुंचा। संध्यात का समय था। महन्तजी एक सोने की कुर्सी पर बैठे हुए थे, जिस पर मखमली गद्दा था। उनके इर्द-गिर्द भक्तों की भीड़ लगी हुई थी, जिसमें महिलाओं की संख्या ही अधिक थी। सभी धुले हुए संगमरमर के फर्श पर बैठी हुई थी। पुरुष दूसरी ओर बैठे थे। महन्तजी पूरे छ: फीट के विशालकाय सौम्य पुरुष थे। अवस्था कोई पैंतीस वर्ष की थी। गोरा रंग, दुहरी देह, तेजस्वी मूर्ति, काषाय वस्त्र तो थे, किन्तु रेशमी। वह पांव लटकाए बैठे हुए थे। भक्त लोग जाकर उनके चरणों को आंखों से लगाते थे, अमर अंदर गया, पर वहां उसे कौन पूछता- आखिर जब खड़े-खड़े आठ बज गए, तो उसने महन्तजी के समीप जाकर कहा-महाराज, मुझे आपसे कुछ निवेदन करना है।
महन्तजी ने इस तरह उसकी ओर देखा, मानो उन्हें आंखें फेरने में भी कष्ट है।
उनके समीप एक दूसरा साधु खड़ा था। उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखकर पूछा-कहां से आते हो-
अमर ने गांव का नाम बताया।
हुक्म हुआ, आरती के बाद आओ।
आरती में तीन घंटे की देर थी। अमर यहां कभी न आया था। सोचा, यहां की सैर ही कर लें। इधर-उधर घूमने लगा। यहां से पश्चिम तरफ तो विशाल मंदिर था। सामने पूरब की ओर सिंहद्वार, दाहिने-बाएं दो दरवाजे और भी थे। अमर दाहिने दरवाजे से अंदर घुसा, तो देखा चारों तरफ चौड़े बरामदे हैं और भंडारा हो रहा है। कहीं बड़ी-बड़ी कढ़ाइयों में पूड़ियां-कचौड़ियां बन रही हैं। कहीं भांति-भांति की शाक-भाजी चढ़ी हुई है कहीं दूध उबल रहा है कहीं मलाई निकाली जा रही है। बरामदे के पीछे, कमरे में खा? सामग्री भरी हुई थी। ऐसा मालूम होता था, अनाज, शाक-भाजी, मेवे, फल, मिठाई की मंडियां हैं। एक पूरा कमरा तो केवल परवलों से भरा हुआ था। उस मौसम में परवल कितने महंगे होते हैं पर यहां वह भूसे की तरह भरा हुआ था। अच्छे-अच्छे घरों की महिलाएं भक्ति-भाव से व्यंजन पकाने में लगी हुई थीं। ठाकुरजी के ब्यालू की तैयारी थी। अमर यह भंडार देखकर दंग रह गया। इस मौसम में यहां बीसों झाबे अंगूर भरे थे।
अमर यहां से उत्तर तरफ के द्वार में घुसा, तो यहां बाजार-सा लगा देखा। एक लंबी कतार दर्जियों की थी, जो ठाकुरजी के वस्त्र सी रहे थे। कहीं जरी के काम हो रहे थे, कहीं कारचोबी की मसनदें और फावतकिए बनाए जा रहे थे। एक कतार सोनारों की थी, जो ठाकुरजी के आभूषण बना रहे थे, कहीं जड़ाई का काम हो रहा था, कहीं पालिश किया जाता था, कहीं पटवे गहने गूंथ रहे थे। एक कमरे में दस-बारह मुस्टंडे जवान बैठे चंदन रगड़ रहे थे। सबों के मुंह पर ढाटे बंधो हुए थे। एक पूरा कमरा इत्र, तेल और अगरबत्तियों से भरा हुआ था। ठाकुरजी के नाम पर कितना अपव्यय हो रहा है, यही सोचता हुआ अमर यहां से फिर बीच वाले प्रांगण में आया और सदर द्वार से बाहर निकला।
गूदड़ ने पूछा-बड़ी देर लगाई। कुछ बातचीत हुई-
अमर ने हंसकर कहा-अभी तो केवल दर्शन हुए हैं, आरती के बाद भेंट होगी। यह कहकर उसने जो देखा था, वह विस्तारपूर्वक बयान किया।
गूदड़ ने गर्दन हिलाते हुए कहा-भगवान् का दरबार है। जो संसार को पालता है, उसे किस बात की कमी- सुना तो हमने भी है लेकिन कभी भीतर नहीं गए कि कोई कुछ पूछने-पाछने लगें, तो निकाले जायं। हां, घुड़साल और गऊशाला देखी है, मन चाहे तो तुम भी देख लो।
अभी समय बहुत बाकी था। अमर गऊशाला देखने चला। मंदिर के दक्खिन में पशुशालाएं थीं। सबसे पहले पीलखाने में घुसे। कोई पच्चीस-तीस हाथी आंगन में जंजीरों से बंधो खड़े थे। कोई इतना बड़ा कि पूरा पहाड़, कोई इतना मोटा, जैसे भैंस। कोई झूम रहा था, कोई सूंड घुमा रहा था, कोई बरगद के डाल-पात चबा रहा था। उनके हौदे, झूले, अंबारियां, गहने सब अलग गोदाम में रखे हुए थे। हरेक हाथी का अपना नाम, अपना सेवक, अपना मकान अलग था। किसी को मन-भर रातिब मिलता था, किसी को चार पसेरी। ठाकुरजी की सवारी में जो हाथी था, वही सबसे बड़ा था। भगत लोग उसकी पूजा करने आते थे। इस वक्त भी मालाओं का ढेर उसके सिर पर पड़ा हुआ था। बहुत-से फूल उसके पैरों के नीचे थे।
यहां से घुड़साल में पहुंचे। घोड़ों की कतारें बांधी हुई थीं, मानो सवारों की फौज का पड़ाव हो। पांच सौ घोड़ों से कम न थे, हरेक जाति के, हरेक देश के। कोई सवारी का कोई शिकार का, कोई बग्घी का, कोई पोलो का। हरेक घोड़े पर दो-दो आदमी नौकर थे। उन्हें रोज बादाम और मलाई दी जाती थी।
गऊशाला में भी चार-पांच सौ गाएं-भैंसें थीं बड़े-बड़े मटके ताजे दूध से भरे रखे थे। ठाकुरजी आरती के पहले स्नान करेंगे। पांच-पांच मन दूध उनके स्नान को तीन बार रोज चाहिए, भंडार के लिए अलग।
अभी यह लोग इधर-उधर घूम ही रहे थे कि आरती शुरू हो गई। चारों तरफ से लोग आरती करने को दौड़ पड़े।
गूदड़ ने कहा-तुमसे कोई पूछता-कौन भाई हो, तो क्या बताते-
अमर ने मुस्कराकर कहा-वैश्य बताता।
'तुम्हारी तो चल जाती क्योंकि यहां तुम्हें लोग कम जानते हैं, मुझे तो लोग रोज ही हाथ में चरसें बेचते देखते हैं, पहचान लें, तो जीता न छोड़ें। अब देखो भगवान् की आरती हो रही है और हम भीतर नहीं जा सकते, यहां के पंडे-पुजारियों के चरित्र सुनो, तो दांतों तले उंगली दबा लो। पर वे यहां के मालिक हैं, और हम भीतर कदम नहीं रख सकते। तुम चाहे जाकर आरती ले लो। तुम सूरत से भी तो ब्राह्यण जंचते हो। मेरी तो सूरत ही चमार-चमार पुकार रही है।'
अमर की इच्छा तो हुई कि अंदर जाकर तमाशा देखे पर गूदड़ को छोड़कर न जा सका। कोई आध घंटे में आरती समाप्त हुई और उपासक लौटकर अपने-अपने घर गए, तो अमर महन्तजी से मिलने चला। मालूम हुआ, कोई रानी साहब दर्शन कर रही हैं। वहीं आंगन में टहलता रहा।

   1
0 Comments